इस समय शिक्षा के पाठ्यक्रम का भगवाकरण करने होने का आरोपी शोर मचा रहे
है | किन्तु “भगवाकरण क्या है”? यह कोई नहीं बताता | अपरिभाषित संप्रदायिकता की
तरह शिक्षा के पाठ्यक्रम का अपरिभाषित अमूर्त भगवाकरण के आरोप की आंधी चलाने की
कोशिश की जा रही है | सबसे अधिक शोर मचाने वाले वो है जो देश और देश के इतिहास को ‘लाल’
कर देने के लिए लालायित थे, लालायित है; जिन्होंने 6 दशक लगातार देश के इतिहास का
चेहरा और चरित्र घिनौना बनाने का षड़यंत्र किया |
स्वतंत्र भारत की कांग्रेस सरकार ने इतिहास को उन कम्यूनिस्टो के हाथो
में सौंप दिया, जिनका उद्देश्य भारत के अस्तित्व को नष्ट करना था और जो भारत
राष्ट्र को आज भी 16 देशो अर्थात विभिन्न राष्ट्रीयताओं का कृत्रिम समूह मानते है
| ये भारत में मजहबी आधार पर द्विराष्ट्र-सिद्धांत के पोषक भी थे | ऐसे लोग भारत
का इतिहास कैसे लिखते? भगवाकरण की बात करने वाले इस बात को चालाकी से भुला देते है
कि इंदिरा गाँधी के दौर में जब नूरल हसन शिक्षा मंत्री की कुर्सी पर बैठे, तब
मार्क्सवादी विचारधारा बिना किसी संवाद के देश पर थोपी गयी थी | और इतिहास परिषद्
द्वारा कम्यूनिस्ट महासचिव नंबूदिरीपाद की किताब प्रकाशित हुई, जबकि सुप्रसिद
इतिहासकार रमेशचंद्र मजूमदार और यदुनाथ सरकार के लिखे ग्रंथो को कूड़े में डाल दिया
गया |
देशवासियों को इस देश के इतिहास, चरित्र और कर्तव्य से भ्रमित करके उनसे
सदाचार की आशा नहीं की जा सकती | देश के भीतर इन दिनों जितनी विकृतियां उत्पन्न
हुई है और जिनका लाभ देश विरोधी शक्तियाँ उठा रही है, उनकी जड़ में वहीँ लोग है
जिन्होंने गलत इतिहास, विकलांग शिक्षा और पराश्रित विकास नीति बनवाई और उन्हें
लागू किया | लेकिन अब कांग्रेस के प्रश्रय पर कम्यूनिस्टो द्वारा किये गये
बौद्धिक-शैक्षिक गोलमाल और इतिहास के साथ की गयी छेड़-छाड़ से देश का जनमानस परिचित
हो चुका है | अब समय है कि देशवासियों को सपष्ट रूप से बताया जाए कि जिस शिक्षा और
इतिहास का भगवाकरण करने का आरोप लगाया जा रहा है वह क्या है?
क्या इतिहास की विसंगतियों को दूर नहीं किया जाना चाहिए? क्या कम्यूनिस्टो
द्वारा रचित ”आर्य विदेशी और और मुग़ल स्वदेशी” जैसा इतिहास पढाया जाना उचित और
देशहित में है? क्या अत्याचारी मुग़ल आक्रांत अकबर को महान और शूरवीर महाराणा
प्रताप को पथभ्रष्ट देशभक्त बताकर पुस्तको में पढाया जाना सही है? क्या
ज्ञान-विज्ञान की भारतीय जानकारी छात्रों से छिपा कर रखनी चहिये? क्या सरकारी स्तर
पर सर्वपंथ समभाव और सामाजिक स्तर पर सर्वपंथ समादर की भावना जागृत करना
संप्रदायिकता भड़काना और भगवाकरण करना है? क्या यह सत्य नहीं है कि स्वतंत्रता
प्राप्ति के पश्चात राधाकृष्णन आयोग 1948-49, कोठारी आयोग 1964-66, राष्ट्रीय
शिक्षा नीति 1989, राममूर्ति समिति 1992 आदि सभी आयोगों व समितियों ने शैक्षिक
प्रणाली को मूल्य आधारित बनाने की आवश्यकता का प्रतिपादन नहीं किया है? जिन तत्वों
को शिक्षा के भारतीयकरण पर आपत्ति है, उन्हें किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए –
आक्रामको, राष्ट्रद्रोही या विदेशी दलालो की?
राष्ट्रवादी शिक्षा का विरोध करने वाले लोग मुस्लिम मदरसों में दी जा
रही मजहबी शिक्षा का विरोध क्यूँ नहीं करते? पश्चिम बंगाल में शिक्षा का पूरी तरह
वामपंथीकरण कर देने वाले लोग ही भारतीयकरण का घोर विरोध कर रहे है | समस्त भारत की
भाषाओ की माता और भारत की आत्मा की भाषा संस्कृत को पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप
में शामिल क्यूँ नहीं होने दिया गया? और अब जब उसे वैकल्पिक विषय के रूप में पाठ्यक्रम
में शामिल किये जाने के प्रयास हो रहे है तो इस पर आपत्ति और शोर क्यूँ मचाया जा
रहा है? क्या नेहरु जी जैसे घोर भौतिकवादी व्यक्ति ने भी शिक्षा के आध्यात्मिकरण
की आवश्यकता को स्वीकार नहीं किया था? आध्यात्मिकता की बात इस देश में भले ही कुछ
लोगो को अच्छी न लगे, लेकिन पश्चिमी देश उसके लिए भारत की ओर देख रहे है | संस्कृत
सिखाने वाले विश्वविद्यालयो की संख्या विदेशो में लगातार बढ़ रही है | इसलिए जब तक
भारत में कौटिल्य का अर्थशास्त्र, शुक्राचार्य की नीतियाँ, वाल्मीकि और व्यास रचित
रामायण, और राजशास्त्र की उपेक्षा की जाती रहेगी, तब तक भारतवासियों को आत्मगौरव
का अनुभव नहीं होगा |
एक बाइबिल, एक कुरान को आधार बनाकर दुनिया में सैकड़ो विश्वविद्यालय है
– जहां लाखो अध्यापक, विद्यार्थी और शोधकर्ता लम्बे समय से लगे हुए है | दूसरी ओर
हिन्दू परंपरा में असंख्य गुरु-गंभीर, दार्शनिक ग्रन्थ है – वेद, उपनिषद् पुराण
आदि, किन्तु इनके अध्ययन के लिए एक विश्वविद्यालय तो छोड़िये, कायदे का एक विभाग भी
कोई नहीं जानता | यदि कोई शिक्षा-शास्त्री इस विकृति को ठीक करने की बात कहे तो
उसे संप्रदायिकता से ग्रस्त बताया जाता है | यह हिन्दू विरोध नहीं तो और क्या है?
क्या यह सच नहीं है कि यह हमारी अब तक की शिक्षा प्रणाली और पाठ्यक्रम
का ही दोष है कि बहुत से छात्र परिक्षाओ में विफल रहने के कारण आत्महत्या तक कर
लेते है? छात्रों की ज्ञानात्मक, विज्ञानात्मक, भावात्मक, आध्यात्मिक और तथ्यपरक
इतिहास की दृष्टि को पुष्ट करना यदि शिक्षा का भगवाकरण करना है तो इस भगवाकरण को
शत-शत नमन क्यों नहीं किया जाना चाहिए? जो शिक्षा रोमिला थापर और मार्क्सवादी मण्डली
ने पिछले 6 दशको में दी है, वह पूरी तरह विकृत रही है | मार्क्सवादी लोग सबसे अधिक
धर्म-निरपेक्षता का शोर मचाते है लेकिन मई 1941 में मार्क्सवादियों ने प्रस्ताव
पास कर द्वि-राष्ट्र सिद्धांत और देश के टुकड़े करने का समर्थन किया था | यदि
शिक्षा में धर्म-निरपेक्षता की फिक्र है तो देशभर में चल रहे मदरसों का पाठ्यक्रम
चिंता का कारण होना चाहिए | इसमें क्या पढ़ाया जाता है, उससे अबोध मुसलमान बच्चो
में क्या मानसिकता बनती है – यह वामपंथियों में कभी विचार का विषय नहीं बनता |
क्योंकि संप्रदायिकता का रंग तो केवल भगवा होता है |
यथार्थ यह है कि राजनैतिक दंगल में भाजपा का मुकाबला करने में असमर्थ
होकर वामपंथी जमात संस्कृत, भारतीय संस्कृति और संस्कार से बैर कर बैठी है |
No comments:
Post a Comment