Wednesday, 17 February 2016

शिक्षा का भगवाकरण आखिर क्या?

इस समय शिक्षा के पाठ्यक्रम का भगवाकरण करने होने का आरोपी शोर मचा रहे है | किन्तु “भगवाकरण क्या है”? यह कोई नहीं बताता | अपरिभाषित संप्रदायिकता की तरह शिक्षा के पाठ्यक्रम का अपरिभाषित अमूर्त भगवाकरण के आरोप की आंधी चलाने की कोशिश की जा रही है | सबसे अधिक शोर मचाने वाले वो है जो देश और देश के इतिहास को ‘लाल’ कर देने के लिए लालायित थे, लालायित है; जिन्होंने 6 दशक लगातार देश के इतिहास का चेहरा और चरित्र घिनौना बनाने का षड़यंत्र किया |

स्वतंत्र भारत की कांग्रेस सरकार ने इतिहास को उन कम्यूनिस्टो के हाथो में सौंप दिया, जिनका उद्देश्य भारत के अस्तित्व को नष्ट करना था और जो भारत राष्ट्र को आज भी 16 देशो अर्थात विभिन्न राष्ट्रीयताओं का कृत्रिम समूह मानते है | ये भारत में मजहबी आधार पर द्विराष्ट्र-सिद्धांत के पोषक भी थे | ऐसे लोग भारत का इतिहास कैसे लिखते? भगवाकरण की बात करने वाले इस बात को चालाकी से भुला देते है कि इंदिरा गाँधी के दौर में जब नूरल हसन शिक्षा मंत्री की कुर्सी पर बैठे, तब मार्क्सवादी विचारधारा बिना किसी संवाद के देश पर थोपी गयी थी | और इतिहास परिषद् द्वारा कम्यूनिस्ट महासचिव नंबूदिरीपाद की किताब प्रकाशित हुई, जबकि सुप्रसिद इतिहासकार रमेशचंद्र मजूमदार और यदुनाथ सरकार के लिखे ग्रंथो को कूड़े में डाल दिया गया |

देशवासियों को इस देश के इतिहास, चरित्र और कर्तव्य से भ्रमित करके उनसे सदाचार की आशा नहीं की जा सकती | देश के भीतर इन दिनों जितनी विकृतियां उत्पन्न हुई है और जिनका लाभ देश विरोधी शक्तियाँ उठा रही है, उनकी जड़ में वहीँ लोग है जिन्होंने गलत इतिहास, विकलांग शिक्षा और पराश्रित विकास नीति बनवाई और उन्हें लागू किया | लेकिन अब कांग्रेस के प्रश्रय पर कम्यूनिस्टो द्वारा किये गये बौद्धिक-शैक्षिक गोलमाल और इतिहास के साथ की गयी छेड़-छाड़ से देश का जनमानस परिचित हो चुका है | अब समय है कि देशवासियों को सपष्ट रूप से बताया जाए कि जिस शिक्षा और इतिहास का भगवाकरण करने का आरोप लगाया जा रहा है वह क्या है?

क्या इतिहास की विसंगतियों को दूर नहीं किया जाना चाहिए? क्या कम्यूनिस्टो द्वारा रचित ”आर्य विदेशी और और मुग़ल स्वदेशी” जैसा इतिहास पढाया जाना उचित और देशहित में है? क्या अत्याचारी मुग़ल आक्रांत अकबर को महान और शूरवीर महाराणा प्रताप को पथभ्रष्ट देशभक्त बताकर पुस्तको में पढाया जाना सही है? क्या ज्ञान-विज्ञान की भारतीय जानकारी छात्रों से छिपा कर रखनी चहिये? क्या सरकारी स्तर पर सर्वपंथ समभाव और सामाजिक स्तर पर सर्वपंथ समादर की भावना जागृत करना संप्रदायिकता भड़काना और भगवाकरण करना है? क्या यह सत्य नहीं है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात राधाकृष्णन आयोग 1948-49, कोठारी आयोग 1964-66, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1989, राममूर्ति समिति 1992 आदि सभी आयोगों व समितियों ने शैक्षिक प्रणाली को मूल्य आधारित बनाने की आवश्यकता का प्रतिपादन नहीं किया है? जिन तत्वों को शिक्षा के भारतीयकरण पर आपत्ति है, उन्हें किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए – आक्रामको, राष्ट्रद्रोही या विदेशी दलालो की?

राष्ट्रवादी शिक्षा का विरोध करने वाले लोग मुस्लिम मदरसों में दी जा रही मजहबी शिक्षा का विरोध क्यूँ नहीं करते? पश्चिम बंगाल में शिक्षा का पूरी तरह वामपंथीकरण कर देने वाले लोग ही भारतीयकरण का घोर विरोध कर रहे है | समस्त भारत की भाषाओ की माता और भारत की आत्मा की भाषा संस्कृत को पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप में शामिल क्यूँ नहीं होने दिया गया? और अब जब उसे वैकल्पिक विषय के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने के प्रयास हो रहे है तो इस पर आपत्ति और शोर क्यूँ मचाया जा रहा है? क्या नेहरु जी जैसे घोर भौतिकवादी व्यक्ति ने भी शिक्षा के आध्यात्मिकरण की आवश्यकता को स्वीकार नहीं किया था? आध्यात्मिकता की बात इस देश में भले ही कुछ लोगो को अच्छी न लगे, लेकिन पश्चिमी देश उसके लिए भारत की ओर देख रहे है | संस्कृत सिखाने वाले विश्वविद्यालयो की संख्या विदेशो में लगातार बढ़ रही है | इसलिए जब तक भारत में कौटिल्य का अर्थशास्त्र, शुक्राचार्य की नीतियाँ, वाल्मीकि और व्यास रचित रामायण, और राजशास्त्र की उपेक्षा की जाती रहेगी, तब तक भारतवासियों को आत्मगौरव का अनुभव नहीं होगा |

एक बाइबिल, एक कुरान को आधार बनाकर दुनिया में सैकड़ो विश्वविद्यालय है – जहां लाखो अध्यापक, विद्यार्थी और शोधकर्ता लम्बे समय से लगे हुए है | दूसरी ओर हिन्दू परंपरा में असंख्य गुरु-गंभीर, दार्शनिक ग्रन्थ है – वेद, उपनिषद् पुराण आदि, किन्तु इनके अध्ययन के लिए एक विश्वविद्यालय तो छोड़िये, कायदे का एक विभाग भी कोई नहीं जानता | यदि कोई शिक्षा-शास्त्री इस विकृति को ठीक करने की बात कहे तो उसे संप्रदायिकता से ग्रस्त बताया जाता है | यह हिन्दू विरोध नहीं तो और क्या है?

क्या यह सच नहीं है कि यह हमारी अब तक की शिक्षा प्रणाली और पाठ्यक्रम का ही दोष है कि बहुत से छात्र परिक्षाओ में विफल रहने के कारण आत्महत्या तक कर लेते है? छात्रों की ज्ञानात्मक, विज्ञानात्मक, भावात्मक, आध्यात्मिक और तथ्यपरक इतिहास की दृष्टि को पुष्ट करना यदि शिक्षा का भगवाकरण करना है तो इस भगवाकरण को शत-शत नमन क्यों नहीं किया जाना चाहिए? जो शिक्षा रोमिला थापर और मार्क्सवादी मण्डली ने पिछले 6 दशको में दी है, वह पूरी तरह विकृत रही है | मार्क्सवादी लोग सबसे अधिक धर्म-निरपेक्षता का शोर मचाते है लेकिन मई 1941 में मार्क्सवादियों ने प्रस्ताव पास कर द्वि-राष्ट्र सिद्धांत और देश के टुकड़े करने का समर्थन किया था | यदि शिक्षा में धर्म-निरपेक्षता की फिक्र है तो देशभर में चल रहे मदरसों का पाठ्यक्रम चिंता का कारण होना चाहिए | इसमें क्या पढ़ाया जाता है, उससे अबोध मुसलमान बच्चो में क्या मानसिकता बनती है – यह वामपंथियों में कभी विचार का विषय नहीं बनता | क्योंकि संप्रदायिकता का रंग तो केवल भगवा होता है |


यथार्थ यह है कि राजनैतिक दंगल में भाजपा का मुकाबला करने में असमर्थ होकर वामपंथी जमात संस्कृत, भारतीय संस्कृति और संस्कार से बैर कर बैठी है |

जब सब बाते साम्यवादी तथा उनके सहकर्मी लेखको रोमिला थापर, सतीशचन्द्र, अर्जुनदेव आदि के आर्थिक स्वार्थो को पूर्ण करने के लिए हो रही थी तब सब लोग लाल थे | जब उनका एकछत्र राज्य समाप्त हुआ तो वो पीले पड़ गये | हम सब लोग जानते है लाल और पीला मिलकर भगवा बनता है | अब उनकी भगवा आँख को हर अच्छी बात बुरी लगती है और इसको भगवाकरण कहते है | अनजाने ही सही, कम्यूनिस्टो और मुस्लिमपरस्तो ने जिस गाली का अविष्कार हिन्दुओ को गाली देने के लिए किया है, वह “भगवा” देश की आत्मा की हुंकार है, जो अब गूंजने लगी है और अभी और गूंजेगी | युगद्रष्टा महर्षि श्री अरविन्द की भविष्यवाणी में आया “भारत का पुरावतरण” मिथ्या नहीं हो सकता |

Saturday, 6 February 2016

'महानता' पाने को तरसता महापुरुष महाराणा प्रताप का नाम

जब भी देश में ‘महान कौन? अकबर या राणा प्रताप?’ विषय पर बहस छिड जाती है तो मुझे भी स्कूल की इतिहास वाली पुस्तकों में पढ़े वामपंथी इतिहासकारों के स्वर्णिम अक्षर याद आ जाते है | एक और जहाँ अकबर, टीपू सुल्तान और औरंगजेब आदि महान दिखाई पड़ते थे वहीं इस महानता को पाने के लिए राम, कृष्ण, विक्रमादित्य, पृथ्वीराज, राणा प्रताप, शिवाजी और ऐसे कितने ही महापुरुषों के नाम तरसते रहते | पुस्तकों में अकबर के बारे में छपे पुरे अध्याय में दो-तीन लाइन महाराणा प्रताप पर भी होती थी | वो कब पैदा हुए, कब मरे, कैसे विद्रोह किया और कैसे उनके ही राजपूत उनके खिलाफ थे आदि | अब अकबर और महाराणा प्रताप का मुकाबला कहा? कहाँ अकबर पूरे भारत का सम्राट, अपने हरम में पांच हज़ार से भी ज्यादा औरतों की जिन्दगी रोशन करने वाला, बीसियों राजपूत राजाओं को अपने दरबार में रखने वाला और कहा राणा प्रताप जो सब कुछ त्याग कर अपने राज्य के लिये लड़ता रहा, जिसका कोई हरम नहीं और अपने राज्य की रक्षा के लिये वनों में रहकर घास की रोटी खाता रहा | वो राणा प्रताप जो अकबर “महान” का संधि प्रस्ताव कई बार ठुकरा चुका था | सच है कि हमारे इतिहासकार किसी को महान यूँ ही नहीं कह देते | ऐसे इतिहासकार जिनका अकबर दुलारा और चहेता है, एक बात नहीं बताते कि कैसे एक ही समय पर राणा प्रताप और अकबर महान हो सकते थे जबकि दोनों एक दूसरे के घोर विरोधी थे? जब मेवाङ की सत्ता राणा प्रताप ने संभाली, तब आधा मेवाङ मुगलों के अधीन था और शेष मेवाङ पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिये अकबर प्रयासरत था । राजस्थान के कई परिवार अकबर की शक्ति के आगे घुटने टेक चुके थे, किन्तु महाराणा प्रताप अपने वंश को कायम रखने के लिये संघर्ष करते रहे | जंगल-जंगल भटकते हुए घास-पात की रोटियों में गुजर-बसर कर पत्नी व बच्चे को विकराल परिस्थितियों में अपने साथ रखते हुए भी उन्होंने कभी धैर्य नहीं खोया। पैसे के अभाव में सेना के टूटते हुए मनोबल को पुनर्जीवित करने के लिए दानवीर भामाशाह ने अपना पूरा खजाना समर्पित कर दिया। तो भी, महाराणा प्रताप ने कहा कि सैन्य आवश्यकताओं के अलावा मुझे आपके खजाने की एक पाई भी नहीं चाहिए। महाराणा प्रताप के पास साधन सीमित थे, किन्तु फिर भी वो झुका नही, डरा नही। उनके धैर्य और साहस का ही असर था कि 30 वर्ष के लगातार प्रयास के बावजूद अकबर महाराणा प्रताप को बन्दी न बना सका। 


महाराणा प्रताप सच्चे क्षत्रिय योद्धा थे, उन्होने अमरसिंह द्वारा पकङी गई बेगमों को सम्मान पूर्वक वापस भिजवाकर अपने विशाल ह्रदय का परिचय दिया। उनके शासनकाल में अनेक विद्वानो एवं साहित्यकारों को आश्रय प्राप्त था। अपने शासनकाल में उन्होने युद्ध में उजङे गाँवों को पुनः व्यवस्थित किया। पद्मिनी चरित्र की रचना तथा दुरसा आढा की कविताएं महाराणा प्रताप के युग को आज भी अमर बनाये हुए हैं।
अब एक नज़र डालते है अकबर महान से जुडी कुछ बातों पर और वो भी तथ्यों के साथ | अकबर के जीवन पर सबसे ज्यादा प्रामाणिक इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ की अंग्रेजी की किताब “अकबर- द ग्रेट मुग़ल” यहाँ से शुरू है - “अकबर भारत में एक विदेशी था | उसकी नसों में एक बूँद खून भी भारतीय नहीं था…. अकबर मुग़ल से ज्यादा एक तुर्क था” | पर देखिये! हमारे इतिहासकारों ने अकबर को एक भारतीय के रूप में पेश किया है | जबकि हकीकत यह है कि अकबर के सभी पूर्वज बाबर, हुमायूं, से लेकर तैमूर तक सब भारत में लूट, बलात्कार, धर्म परिवर्तन, मंदिर विध्वंस, आदि कामों में लगे रहे | बाबर शराब का शौक़ीन था और हुमायूं अफीम का | अकबर ने ये दोनों आदतें अपने पिता और दादा से विरासत में लीं | अकबर का दरबारी लिखता है कि अकबर ने इतनी ज्यादा पीनी शुरू कर दी थी कि वह मेहमानों से बात करता करता भी नींद में गिर पड़ता था | ये भी इतिहास है कि अकबर आगरा में मीना बाज़ार लगवाता था और उस मीना बाज़ार में खुद औरतो के कपडे पहन के जाता था और जो औरत पसंद आती थी उसको ले आता था | बीकानेरकी महारानी किरण देवी उस मीना बजार में आई थी और अकबर किरण देवी पर मोहीत हो गया | वहा किसी भी तरह उसे हासिल करना चाहता था | तब उसकी बानियाँ किरण देवी को बहला फुसलाकर अकबर के दरबार में ले गई | जब अकबर के सामने पहुंची महारानी ने अकबर की बुरी नियत को देखा तो उसे गिराकर उसकी छाती पर छुरी लेकर चढ़ गई, तब अकबर ने बहन बनाकर उससे माफ़ी मांगी थी |


ये भी इतिहास है की अकबर ने तुलसीदास को क़ैद किया | जहाँगीर ने लिखा है कि अकबर कुछ भी लिखना पढ़ना नहीं जानता था पर यह दिखाता था कि वह बड़ा भारी विद्वान है |
रणथंभोर की संधि में अकबर महान की पहली शर्त यह थी कि राजपूत अपनी स्त्रियों की डोलियों को अकबर के शाही हरम के लिए रवाना कर दें यदि वे अपने सिपाही वापस चाहते हैं | बैरम खान जो अकबर के पिता तुल्य और संरक्षक था, उसकी हत्या करके इसने उसकी पत्नी अर्थात अपनी माता के तुल्य स्त्री से शादी की | कर्नल टोड लिखते हैं कि अकबर ने एकलिंग की मूर्ति तोड़ी और उस स्थान पर नमाज पढ़ी | चित्तौड़ में तीस हजार लोगों का कत्लेआम करने वाला और नगरों और गाँवों में जाकर नरसंहार कराकर लोगों के कटे सिरों से मीनार बनाने वाले क्रूर आक्रांता को आज “शान ए हिन्दोस्तां” लिखा जा रहा है | यह विडंबना ही है कि विश्व को ज्ञान देने वाले भारत को ही दुनिया का सबसे झूठा इतिहास पढ़ाया जा रहा है।

Saturday, 30 January 2016

मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का परिणाम था विभाजन

विभाजन एक ऐसी घटना थी जिसने इस राष्ट्र को जड़ तक हिला दिया | 14 अगस्त 1947 का वह क्रूर दिन जब पाकिस्तान में लाखो हिन्दुओ ने अपने प्राण इसलिए चढ़ा दिए कि भारत का जीवन अमर रहे | उस प्रलयकारी घटना की दो गवाह – सरकारी तथ्य शोधक समिति (फैक्ट फाइंडिंग कमेटी) की रिपोर्ट और दूसरी शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति की रिपोर्ट है, जिनसे आज की पीढ़ी जान सकती है कि क्या हुआ था | हिन्दुओ के नरसंहार, लूट, अग्निकांड, अपहरण और बलात्कार के वे घाव कभी किसी परदे से नहीं ढके जा सकेंगे |

फ्रायड ने कहा है कि, “अगर हमारे अतीत और भविष्य पर कोई प्रकाश न डाल सके, तो इतिहास के अध्ययन का क्या लाभ और उससे हमने क्या शिक्षा ग्रहण की? ऐसे निर्जीव अध्ययन का क्या करना?” इसलिए विभाजन के संदर्भ में यह विवरण आज के राजनीतिक लोगो को बेचैन कर देगा जो गाँधी और नेहरु की कसमे खाए जा रहे है | यह नंगा करेगा उन छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों को जिन्होंने यह मिथक निर्माण किया कि देश को आज़ादी अहिंसा के हथियार से मिली |
विभाजन जिस तरीके से हुआ वह जल्दबाजी और अनियोजित था, जिसका परिणाम अनगिनत प्राणहानि हुआ | गाँधी जी भारत के राष्ट्रवादी जनता के अद्वितीय नेता थे | उनकी इस घोषणा के भुलावे में लाखो हिंदू मारे गये कि –“भारत का विभाजन मेरी लाश पर ही होगा” | जनता की गाँधी जी प्रति ऐसी निष्ठां थी कि वो सोच भी नहीं सकते थे कि जब गाँधी जी जीवित हैं, तो हमारी मातृभूमि का विभाजन किस प्रकार हो सकता है | लेकिन दूसरी ओर ब्रिटिश सत्ताधारियों की सहायता के आधार पर जिन्ना को अच्छी तरह पता था कि हमें पाकिस्तान मिल कर ही रहेगा और मुसलमानों ने उसके मार्गदर्शन में भारी तैयारी कर ली थी | एक तरफ मुस्लिम पूरी तरह तैयार थे और दूसरी तरफ हिंदू बिलकुल भी नहीं | उन्होंने अपने दिमाग में दो व्यक्तियों – गाँधी और नेहरु को गिरवी रख छोड़ा था |


जब विभाजन अनिवार्य हो चुका था, तब भी गाँधी और नेहरु ने महान दृष्टा डॉ. अबेडकर के शब्दों पर ध्यान नहीं दिया | 1 हज़ार तक भारत में रहकर मुसलमानों के दिमाग का जो रूप बना और भारत भूमि पर इस्लाम का आधिपत्य ज़माने की जो कसमे उन्होंने खायी थी, उन सबका विश्लेषण करके डॉ आंबेडकर ने दो राष्ट्र मानने का प्रस्ताव रखा था: मुस्लिम कौम और हिंदू राष्ट्र | लेकिन कांग्रेस के गले वह भी न उतरा | सत्ता की उतावली भूख और लालसा इस कदर बढ़ गयी थी कि अंग्रेज सरकार ने आज़ादी का वायदा जून 1948 का दिया था, लेकिन उसको जल्दी मचा कर पाकिस्तान और भारत के विभाजन की तिथि को 14/15 अगस्त 1947 करवा लिया | इस अन्तराल में आज़ादी की अदला-बदली हो सकती थी और लाखो हिन्दुओ का नरसंहार बचाया जा सकता था | किन्तु ऐसा नहीं हुआ |

असल में पाकिस्तान की मांग कोई आकस्मिक या अनायास जन-भावना-ज्वार नहीं था | बल्कि शताब्दियों पुराने पृथकतावादी चिन्ह, पृथक संस्कृति, अस्मिता, भाषा, कानूनों और रीति-रिवाजों का परिणाम था | कांग्रेस इस पृथक अस्मिता की मांग को ऐसे तथ्य के रूप में नहीं समझ पायी के यह भारत के विभाजन का कारण बन सकता है | या तो वह जान बूझ कर मुस्लिम षड्यंत्रों की उपेक्षा करती रही या वह इनसे पूर्णत: अनभिज्ञ रही |

जिन्ना और मुस्लिम लीग आग्रहपूर्वक कह रहे थे कि कांग्रेस हिंदू संस्था है और हिन्दुओ की आवाज़ है अत: उसे मुसलमानों के बारे में कुछ नहीं बोलना चाहिए | जिन्ना ने बलपूर्वक कहा कि मुसलमानों की प्रतिनिधि मुस्लिम लीग ही है और हिन्दुओ की कांग्रेस | लेकिन कांग्रेसी नेता अपने अज्ञान में इस विचार का विरोध करते रहे कि कांग्रेस हिंदू संस्था नहीं है, एक राष्ट्रीय संगठन है | इस कालसंधि में इसका अर्थ क्या था? जहाँ प्रत्येक व्यक्ति ने मान लिया कि मुसलमानों की प्रवक्ता मुस्लिम लीग है और मुसलमानों को भी यह विश्वास हुआ कि उनका भी कोई प्रतिनिधि संगठन है, वही हिन्दुओ का कोई प्रतिनिधि संगठन या प्रवक्ता नहीं था | हिन्दुओ ने सर्वाधिक मुर्खता यह की कि हिंदू महासभा का समर्थन करने के स्थान पर उन्होंने मुखविहीन कांग्रेस को समर्थन दिया | उन्होंने वीर सावरकर का अनुसरण नहीं किया जिन्होंने हिन्दुओ के लिए इतने बलिदान दिए थे | यह समर्थन कांग्रेस द्वारा ‘हिंदू संस्था’ होने से इनकार के बाद भी दिया जाता रहा | इसी समर्थन का परिणाम था विभाजन |

इस विभाजन ने सिद्ध कर दिया कि गाँधी जी अथवा कांग्रेस का मुस्लिम तुष्टीकरण विभाजन को रोक नहीं सका | सारे समर्पण, नमन और प्रार्थनाएं मुस्लिमो को भारतीय और भारत को एक राष्ट्र बनाएं रखने में सफल नहीं हुई | कांग्रेस और गाँधी सभी हर समय अहिंसा, सहनशीलता, करुणा का सन्देश पहले से सहनशील हिन्दुओ को देते रहे, हिंदू-मुस्लिम एकता की शपथ खिलाते रहे और मुसलमानों के हाथो में उनकी सुरक्षा का आश्वासन देते रहे | इसने हिन्दुओ को निष्क्रियता की नींद सुला दिया | 10 मई 1947 को गाँधी जी ने जिन्ना और मुस्लिम लीग को यहाँ तक प्रस्तावित कर दिया था कि वे कांग्रेस को सम्मिलित किये बिना स्वयमेव ही स्वाधीन भारत का राज चला सकते है | इस हद तक तुष्टीकरण के बाद भी तथाकथित राष्ट्रीय मुसलमान तक भी विभाजन से थोडा पूर्व मुस्लिम लीग के सैनिक बनकर उसमे शामिल हो गये | दूसरी मुर्खता यह थी कि कांग्रेसी नेताओ ने भारत का प्रथम गवर्नर-जनरल लार्ड माउंटबैटन को बनाया | 


यह माउंटबैटन ही था जो कश्मीर का विलय पाकिस्तान में चाहता था | इसी माउंटबैटन ने सीमा सुरक्षा के बड़े भाग को विभाजन के दिनों में भारत के अन्दर रखा जिसके कारण पाकिस्तान के अत्याचारों से हिन्दुओ को बचाने के लिए कोई सेना नहीं थी |

गाँधी जी ने हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करने की प्रतिज्ञा की और अपने सारे भाषणों, प्रयासों और कार्यो द्वारा मुसलमानों का तुष्टीकरण और उन्हें अंग्रेजो के विरुद्ध संघर्ष की मुख्यधारा में लाने का प्रयत्न करते रहे | उनका ऐसा ही कार्य था ‘खिलाफत आन्दोलन’ | डॉ आंबेडकर जी ने लिखा है कि – “मुसलमानों द्वारा 1919 में प्रारंभ किये गये आन्दोलन को गांधीजी ने इतनी दृढ़ता और जोश के साथ उठा लिया, जिसपर स्वयं मुसलमानों को भी अचंभा हुआ” |  ‘असहयोग’ का जन्म भी ‘खिलाफत’ की कोख हुआ; वह कांग्रेस की स्वराज्य-संघर्ष’ की संतान नहीं थी | वह खिलाफतियों द्वारा तुर्की की सहायता के लिए नयी तरफ से अंग्रेजो पर हमला था | अली बंधुओ, शौकत अली और मुहम्मद अली ने पुरे साल भर “खिलाफत आन्दोलन” के लिए दौड़-भाग की | डॉ आंबेडकर प्रश्न करते है कि क्या कोई बुद्धिमान व्यक्ति, हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए इतनी दूर तक जा सकता है? 

हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए गाँधी जी का खफ्त इतना जबर्दस्त था कि उन्होंने मुसलमानों द्वारा हिन्दुओ पर अत्याचार की नींदा नहीं की | गाँधी हिंसा के प्रत्येक कृत्य की निंदा करने में कभी नहीं चुकते थे और कांग्रेस को भी, उसकी इच्छा के विपरीत विवश करते थे | परन्तु गाँधी जी ने स्वामी श्रद्धानंद और लाला नानकचंद जैसे अनेक हिंदू नेताओ की हत्या का कभी विरोध नहीं किया | इसका मतलब वे हिंदू-मुस्लिम एकता की सुरक्षा केवल हिन्दुओ के बलिदान से चाहते थे | मालाबार के मोपलों द्वारा हिन्दुओ पर किये गये अत्याचारों का वर्णन नहीं किया जा सकता | धर्मांतरण के लिए तैयार न होने वाले हिन्दुओ को व्यापक रूप से मारा गया और एक लाख लोग वस्त्रो के अतिरिक्त सबकुछ छोड़ कर घरो से भगा दिए गये | जब कुछ खिलाफत नेताओ ने मोपलों को अपने धर्म-युद्ध में इतनी वीरता दिखाने पर बधाई के प्रस्ताव पारित किये तब भी गाँधी जी ने उसकी भर्त्सना करने की वजह मोपलों के बारे में लिखा कि वे बहादुर ‘खुदा-तर्स’ मोपले उस चीज़ के लिए जी-जान से लड़ रहे थे, जो वे अपना मजहब समझते थे और मजहब के मुताबिक जायज मानते थे | स्वामी श्रद्धानंद की हत्या करने वाले अपराधी रशीद का कचहरी में बचाव कांग्रेसी नेता आसफ अली ने किया | गाँधी जी ने हत्या सपष्टीकरण इन शब्दों में दिया, “मै तो उसे स्वामी जी की हत्या का अपराधी भी नहीं मानता | अपराधी वास्तव में वो है जो एक दुसरे के प्रति घृणा की भावनाएं भड़काते है |”

गाँधी जी की आँखे मुसलमानों की उनके प्रति अपमानजनक बातो से भी नहीं खुली | अलीगढ़ में 1924 में मुहम्मद अली ने एक सभा में कहा, “गाँधी जी का चरित्र कितना भी पवित्र क्यों न हो, मजहब के लिहाज से मेरी नज़र में हर मुसलमान, चाहे उसका इखलाक कितना भी गिरा हुआ क्यों न हो, गाँधी से ऊँचा है |” 1925 में उसने अपने इस वक्तव्य को पुन: लखनऊ में दोहराया | 1923 में काकीनाडा कांग्रेस में “वन्दे मातरम” का गान रोक दिया गया और उसकी जगह “रघुपति राघव राज राम” आ गया | उसे भी मुसलमानों ने गाने से इनकार कर दिया |

खिलाफत आन्दोलन के प्रभाव दो प्रकार के थे | एक तो कट्टरवादी मुसलमानों को राजनीति में मान्यता और इज्जत मिल गई | दुसरे राष्ट्र-भक्ति के ऊपर उनकी मजहब-परस्ती हावी हो गयी | बिखरे हुए असंगठित कमजोर मुसलमान कबीले इकट्ठे हो गये और गठजोड़ करके मजहबी धर्मांध लोगो के हाथो में नेतृत्व की डोर सौंप दी गयी |

मुस्लिम प्रेस ने भी मुसलमानों को भड़काया | बंगाल के ‘असरे-जदीद’ ने मुसलमानों को हिन्दुओ के ऊपर अपनी हुकूमत के ‘हजारो साल’ की याद दिलाते हुए, वर्तमान में इस्लाम के ऊपर “काफिरों” द्वारा प्रस्तुत चुनौती का सामना करने का जोश दिलाया | अपने 28 अप्रैल 1926 के अंक में कलकत्ता के ‘फारवर्ड’ ने एक उर्दू पत्रक का हवाला देते हुए कलकत्ते के मुसलमानों को सलाह दी, “एक मुसलमान की जान के बदले, सैकड़ो ‘काफिरों’ की जाने ले लेनी चाहिए | जहां कही कोई मारवाड़ी, बंगाली या पहाड़ी हिंदू मिले, उसे कत्ल कर डालो | तुम्हारी जितनी ताकत हो, मारते जाओ |” ये सब खिलाफत आन्दोलन के परिणाम थे |

एफ़. के. खान दुर्रानी ने लिखा: “हम अपने पुरखो के खुन से बेवफा नहीं हो सकते | अत: सारा हिंदुस्तान हमारी बपौती है और उसे फिर से इस्लाम के तले विजय करना चाहिए |”
1928 में प्रकाशित घोषणा पत्र में ख्वाजा हसन आजमी ने कहा: “मुसलमान हिन्दुओ से जुदा है | हिन्दुओ के साथ उनकी एकता असंभव है | हिंदू दुनिया में एक दुर्बल राष्ट्र है | वे आपसी झगड़ो से नहीं निबट पाए | मुसलमानों ने निश्चित रूप से शासन किया है और करेंगे |”

लाला लाजपत राय जैसे महान नेता ने अपने एक गुप्त पत्र में श्री चितरंजन दास को लिखा, “मैंने अपने पिछले 6 महीनों का अधिकांश समय मुस्लिम इतिहास और मुस्लिम कानून के अध्ययन में व्यतीत किया है और मेरा विचार बना है कि हिंदू-मुस्लिम एकता न तो संभव है और न व्यवहारिक, क्योंकि मुसलमान इस्लाम की अवहेलना नहीं कर सकता |”

महान नेता आंबेडकर ने मुस्लिम दिमाग को अच्छी तरह से पढ़ लिया था, जब उन्होंने 1940 के लगभग यह लिखा: “जो बात साफ़ देखी जा सकती है, वह यह है कि मुसलमानों ने राजनीति में गुंडागर्दी का तरीका अपना लिया है | दंगे पर्याप्त संकेत है कि राजनीति में गुंडागर्दी उनकी रणनीति का निश्चित अंग बन गयी है |”


श्री अरविंद ने 4 अप्रैल 1923 को अपनी सांयकालीन वार्ता ने शिष्यों से कहा: “मुझे खेद है उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता का तमाशा बना दिया है | तथ्यों की उपेक्षा करने का कोई लाभ नहीं है | एक न एक दिन हिन्दुओ को मुसलमानों के साथ लड़ना पड़ सकता है और इसके लिए उन्हें पूरी तरह तैयार रहना चहिये | ‘हिंदू-मुस्लिम एकता’ का अर्थ हिन्दुओ की अवमानना नहीं होना चहिये | सर्वोत्तम समाधान है कि हिन्दुओ को अपना संगठन करने दो; ‘हिंदू-मुस्लिम एकता’ स्वयमेव अपने को संभालेगी | समस्या का समाधान अपने आप हो जायेगा |” 

इस प्रकार सब लोग नि:संकोच होकर गाँधी जी के हिंदू-मुस्लिम एकता के दुराग्रह की आलोचना कर रहे थे किन्तु फिर भी गाँधी जी और कांग्रेस के सत्तापदधारी लोग अपने कल्पना के संसार में जिए जा रहे थे |

आल इंडिया मुस्लिम लीग ने 1937 के अधिवेशन में भारत के लिए “मुकम्मिल आज़ादी” (पूर्ण स्वाधीनता) की मांग की | जिन्ना ने सारे भारत का दौरा किया और कांग्रेस को हिंदू पार्टी कहकर निंदा की | लीग ने “वन्दे मातरम्” विरोध किया और कांग्रेस ने केवल प्रथम दो छंदों को स्वीकार किया | उसने तिरंगे झंडे का प्रयोग और “वर्धा प्राथमिक शिक्षा” योजना का भी विरोध किया | जिन्ना ने 1939 तक की काल अवधि का उपयोग कांग्रेस शासित प्रान्तों में मुसलमानों पर होने वाले अत्याचारों का आरोप लगाकर मुस्लिम जनता को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए किया |
‘पाकिस्तान’ के विचार का सूत्र हमें डॉ मुहम्मद इकबाल के उद्गारो में मिलता है | 1930 में इलाहाबाद के मुस्लिम लीग सम्मेलन में डॉ इकबाल ने, मुसलमानों की पृथक अस्मिता के आधार पर एक अलग मुस्लिम राज्य या संघ (फेडरेशन) के निर्माण का आग्रह करते हुए तर्क प्रस्तुत किये: “ भारत में एक अलग मुस्लिम राज्य के निर्माण की मांग पूर्णत: तर्क-सम्मत है |..मैं पंजाब, सीमा प्रान्त, सिंध और बलोचिस्तान को मिलाकर एक अलग राज्य देखना चाहूँगा | उत्तरी पश्चिमी भारत के मुसलमानों का अंतिम लक्ष्य अंग्रेजी साम्राज्य के अन्दर या बाहर एक स्वतंत्र मुसलमानी राज कायम करना है”

इसके पीछे आया चौधरी रहमत अली का लिखा एक चौपन्ना: “अभी वर्ना कभी नहीं” | इस चौपन्ने में मुसलमानों को बाकी हिंदुस्तान से अलग होने का आग्रह किया गया था | उसमे मुसलमानों की पृथक सभ्यता और रीति-रिवाजो पर रौशनी डाली गयी थी और एक अलग राष्ट्रीयता का दावा प्रस्तुत किया गया था |

रहमत अली ने मुस्लिम लीग के पकिस्तान सम्बन्धी प्रस्ताव के बाद ही अपनी पाकिस्तान की परिभाषा को विस्तार रूप से सपष्ट किया | उसके पत्रक “मिल्लत और मिशन” में इंडिया की ‘दीनिया’ के रूप परिभाषा करते हुए सपष्ट किया गया था कि पाकिस्तान में हिंदू अल्पसंख्यको के साथ कैसा व्यवहार हो | वह भारत और पाकिस्तान के अल्पसंख्यको की पूर्णत: अदला-बदली चाहता था | वह पाकिस्तान में “सिर्फ मुसलमान” ही चाहता था |

जिन्ना ने 13 दिसंबर, 1946 को पाकिस्तान में ऐसे मुसलमानी राज्य के लिए जोशीला भाषण दिया जिसमे सिर्फ मुसलमान ही रहेंगे |


मुसलमानों ने “मुस्लिम नेसनल गार्ड्स’ की स्थापना की और गुंडों को भर्ती किया | इनकी कांग्रेस सेवा दल की तरह अहिंसा के प्रति कोई वचनबद्धता नहीं थी | इनको हथियारों का प्रशिक्षण दिया गया | जबकि हिंदू समाज को संगठित करने के लिए कांग्रेस द्वारा कुछ नहीं किया गया |

26 मार्च, 1940 को लाहौर में लीग ने अपना राष्ट्रीय अधिवेशन किया और पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित किया | मुस्लिम लीग ने भारत सरकार के 1935 के एक्ट में वर्णित संघीय ढाँचे को अस्वीकार कर दिया | जिन्ना ने आग्रहपूर्वक कहा कि रजनीतिक संरचना में कोई भी परिवर्तन मुस्लिम लीग की सहमति के बिना नहीं होना चहिये | उसने यह भी मांग की कि वायसराय के कार्यकारी परिषद् में कांग्रेस को मुस्लिम लीग को समानता देनी चहिये | वायसराय लिनलिथगो ने मुस्लिम लीग की मांग का साथ दिया और उससे मुसलमानों को वीटो-अधिकार मिल गया |

सत्ता के अविलम्ब हस्तांतरण का सै्टफोर्ड क्रिप्स प्रस्ताव, जिसमे संविधानिक वायसराय और युद्ध के पश्चात स्थायी व्यवस्था का प्रावधान था, कांग्रेस को स्वीकार्य नहीं हुआ क्योंकि सर सै्टफोर्ड ने अंतिम क्षणो में अल्पसंख्यको के प्रतिनिधित्व का प्रश्न उठा दिया |

इस घटना चक्र से निराश होकर कांग्रेस ने अगस्त, 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन की पुकार लगायी | अंग्रेज सरकार ने कांग्रेस के बड़े नेताओ को जेलों में डाल दिया | कांग्रेसियों के जेल में रहते जिन्ना के लिए मुस्लिमो को संगठित करने का मौका मिला और उसने “इस्लाम खतरे में है” की घोषणा से राजनितिक परिदृश्य को भावनात्मक मोड़ दे दिया | लीग के लीडरों ने मुस्लिम जनता को एक अलग मुस्लिम राज्य होने के लाभ समझाएं |

हिंदू महासभा ने वीर सावरकर और डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में विभाजन के विरुद्ध आन्दोलन चलाया | सरदार संत सिंह ने 11 अप्रैल 1946 को लन्दन में एक सभा में घोषणा की, “ यदि अंग्रेजो ने भारत की जनता पर पाकिस्तान थोपने का प्रयत्न किया तो क्रांति हो जाएगी |”
गाँधी जी ने सितंबर 1944 में जिन्ना के साथ 11 बार बात की लेकिन जिन्ना बाते करने नहीं आया और वार्ता असफल हो गयी | इंग्लैंड की सरकार बदल गयी और मजदुर दल सत्ता में आ गया | प्रांतीय विधानसभाओ और केंद्रीय व्यवस्थापिका के चुनाव घोषित हुए | मुस्लिम-लीग के चुनाव-प्रवाह ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिंदू विरोधी प्रचार का रूप धारण किया | लीग ने सांप्रदायिक-विद्वेष की आग को बढाया और सज्जाद नशीन, पीर, मुल्ला और मौलाना घृणा भड़काने के लिए प्रचार में लाये गये | लोगो को राष्ट्रीय मुसलमानों को वोट न देने की चेतावनी दी गयी | फतवे जारी हुए और मुस्लिम जनता को यह बताया गया कि ‘राष्ट्रीय मुसलमान इस्लाम के शत्रु और हिंदू-कांग्रेस के जासूस है’, मस्जिदों का प्रयोग किया गया | राष्ट्रीय मुसलमानों को वोट देने वालों या उनके लिए काम करने वालो के विरुद्ध सामाजिक-बहिष्कार और विवाह विच्छेद की धमकियाँ दी गयी | मुस्लिम मतदाताओ को प्रभावित करने के लिए सरकारी अधिकारियो, अध्यापको और डाकियो आदि ने रात दिन काम किया | मुस्लिम प्रेस भी जुट गया और मुस्लिम लीग प्रचार को चुनावो में सफलता मिल गयी | फिर भी राष्ट्रीय-मुसलमानों को सिंध में 32 प्रतिशत और पंजाब में 30 प्रतिशत वोट मिले | परन्तु जिन्ना ने मुसलमानों की विजय का दावा किया और तर्क दिया कि 90% मुसलमानों ने मुस्लिम लीग को वोट दिया है |

लार्ड वैवल ने, मुस्लिम लीग को मिलाकर या उसके बिना भी अंतरिम सरकार के निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ करने का निश्चय किया और 6 अगस्त 1943 को उसने पंडित नेहरु को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया |

27 जुलाई, 1943 को मुस्लिम लीग परिषद की बैठक मुंबई में हुई और अपने प्रस्ताव में मुसलमानों को ‘सीधी कार्यवाही’ के लिए आह्वान किया | जिसका मतलब था एक-एक आदमी अपने एक मात्र संगठन मुस्लिम लीग के पीछे कमर कसकर खड़ा हो और हर प्रकार की शहादत के लिए तैयार हो |
“आपरेशन पाकिस्तान” का आरंभ हो गया, जब जिन्ना ने ‘सीधी-कार्यवाही’ का बिगुल बजाया | लियाकत अली खान ने कहा कि “सीधी-कार्यवाही” का मतलब है गैर-संविधानिक तरीके अपनाना |
सरदार अब्दुल ने रब निश्तार ने दावा किया, “पाकिस्तान सिर्फ खुन बहा कर हासिल हो सकता है |
यु.पी के ख्वाजा निजामुद्दीन ने कहा कि ‘लीग वाले’ ‘अहिंसा’ के साथ नहीं बंधे है |”

‘सीधी-कार्यवाही’ के आरंभ के लिए बंगाल को चुना गया क्योंकि वहां एक शक्तिशाली मुस्लिम सरकार थी और मुख्यमंत्री सोहरावर्दी था | उसी के सुझाव पर कलकत्ता को हिन्दुओ के हत्याकांड को आरंभ करने के लिए चुना गया | कलकत्ते के महापौर एस.एम. उस्मान ने हस्ताक्षरों के साथ 16 अगस्त के दिन हड़ताल घोषित हुई और गुंडों को खुला मैदान मिल गया | पर्चे छापे गये और एक विशाल सभा का कार्यक्रम बना जिसमे सोहरावर्दी की स्पीच तय हुई | अपनी स्पीच में उसने कहा कि लीग ‘सीधी-कार्यवाही’ रमजान के महीने में इसलिए शुरू कर रही है क्योंकि रमजान के महीने ही पैगंबर ने मक्का फ़तह की थी और अरब में इस्लाम का राष्ट्रमंडल स्थापित हुआ था |
एक दुसरे परचे में जिहाद के लिए मुनाजात (हर मस्जिद में नमाज़ के बाद दुआ) बताई गयी थी: हमे काफ़िरो के ऊपर फतह बख्शो..| हमें हिंदुस्तान में इस्लाम की हुकूमत कायम करने की ताकत दो |
बंगाली में प्रकाशित एक चौपन्ना “मुघुर” और भी स्पष्ट था: “मुसलमान नेताओ के ‘कायदे-ऐजम’ की तरफ से विद्रोह का ऐलान हुआ है | यही हम चाहते है | बहादुरों की कौम की यही पालिसी होनी चहिये |

एक और पर्चे में, जिन्ना के हाथ में एक तलवार दिखाते हुए कहा था: “इस्लाम की तलवार आसमान पर चमकती रहनी चाहिए | ओ काफिरों! तुम्हारा अंत दूर नहीं है और कत्ले-आम होने वाला है”
‘सीधी-कार्यवाही’ का दिन अपने साथ हिन्दुओ के घोर प्राण-संकट लेकर आया | पुलिस को चुप रहने के आदेश थे | 4 दिन तक कलकत्ता जलता रहा | एक गृह विभाग अधिकारी के अनुसार 4000 से ऊपर लोगो की हत्या और 10,000 लोग घायल हुए | चौबीस परगना में भी पुलिस के रिकॉर्ड में 2500 लूट-अग्निकांड और विध्वंश की घटनाएँ आलेखित है |  कार्नवालिस रोड के राधा कृष्ण मंदिर और कोलिज स्ट्रीट के शीतला मंदिर जला कर भस्म कर दिए गये थे |





नोआखाली तिपेरा में 29 अगस्त 1946 का ईद का दिन हिंदू विरोधी अभियान के लिए प्रयोग हुआ | सितंबर  1946 में पीर गुलाम सरवर ने नेतृत्व ग्रहण किया और हिन्दुओ की संपति और दुकाने लूटी गयी | मंदिरों को जला दिया गया और डर दिखाकर धर्मांतरण किया गया | गाँधी जी की उपस्थिति में श्रम-मंत्री मनोरंजन चौधरी ने बताया कि 18,000 घर धौंक दिए गये और 60,000 घर दंगो में लुटे गये | 5,000 से ऊपर हिंदू मारे गये और हजारो का धर्मांतरण हुआ तथा लाखो को क्षेत्र छोड़कर जान पड़ा |

जब बिहार का हिंदू कलकत्ते और पूर्वी बंगाल में हुई हिन्दुओ की हत्याओ से दुखी हुआ तो अक्तूबर-नवम्बर 1946 में 12 दिन उन्होंने मुसलमानों पर प्रतिकारात्मक आक्रमण किये | पुलिस ने तुरंत कार्यवाही की और नेहरु पटना व मुंगेर भागे-भागे गये और हिन्दुओ को लताड़ा | 


गाँधी जी के सुझावों पर हिंदू शरणार्थी-शिविरों में गये और मुसलमानों को उनके घरो में वापिस लाया गया | गाँधी जी ने हिन्दुओ द्वारा धन एकत्रित करवाया और मुसलमानों को खिलाया-पिलाया | हिन्दुओ ने इस काम के लिए गाँधी जी को अपने गहने तक दिए |

कलकत्ता-दंगो के पश्चात् लोर्ड वैवल ने अंतरिम सरकार के तुरंत पग उठाये | अंतरिम सरकार ने 3 सितंबर 1946 को बागडोर संभाली | लेकिन मुस्लिम लीग ने ‘सीधी कार्यवाही’ बंद नहीं की और काफी सौदेबाजी के बाद 24 अक्तूबर 1946 को “कैबिनेट मिशन योजना” स्वीकार किये बिना सरकार में इसलिए शामिल हुई कि कांग्रेस की स्थिति को मजबूत नहीं होने देना है | संविधान की सभा की बैठक 9 दिसम्बर 1946 को मुस्लिम लीग प्रतिनिधियों के बिना हुई | उलझन में फसी अंग्रेज सरकार ने 20 फ़रवरी 1947 को यह घोषणा कर दी कि जून 1948 से पहले वह भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण कर देगी | ब्रिटेन ने लार्ड वैवल के स्थान पर लार्ड माउंटबेटन को वायसराय बनाने की घोषणा की और सभी प्रमुख राजनीतिक दलों की सहमती लेकर अंग्रेज सरकार ने भारत-विभाजन की योजना की | 15 अगस्त 1947 को भारत की स्वाधीनता की घोषणा अंग्रेज सरकार ने 3 जून 1947 को कर दी |


कांग्रेस ने विभाजन की योजना स्वीकार की और 24-25 जून को हुई बैठको में चोइथराम गिदवानी और लाला जगत नारायण ने विभाजन-योजना का विरोध किया | लेकिन समाजवादी जो सदा विभाजन का विरोध करते आये उन्होंने कोई कोई आवाज़ नहीं उठाई | गाँधी जी ने, जो सदा आग्रहपूर्वक घोषित करते थे कि “भारत का विभाजन मेरी लाश पर ही होगा”, इस विभाजन-योजना को स्वीकार करने की संस्तुति की |

स्वयं कृपलानी ने बाद में बताया कि कांग्रेस समिति की बैठक में विभाजन का भारी विरोध था और “विभाजन-योजना की स्वीकृति का प्रस्ताव गांधी जी के परामर्श के बिना पारित नहीं हो सकता था |
सरदार पटेल जी ने भी विभाजन को ‘शरीर को बचाने के लिए असाध्य अंग को काट कर देने की विवशता’ के रूप में समर्थन दिया |

15 अगस्त 1947 को भारत की स्वाधीन हो गया और देश का बटवारा मजहब के आधार पर हो गया | किन्तु आज तक उस अल्पसंख्यक समस्या का समाधान नहीं हुआ जिसके कारण विभाजन हुआ | 1947 में विभाजन के समय मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान को एक इस्लामी राज्य घोषित किया लेकिन स्वातंत्र्य वीर सावरकर जैसे दृष्टाओं के बार-बार आग्रह पर भी खंडित हिंदुस्तान को हिंदू राज्य घोषित करना अस्वीकार कर दिया गया | पंडित नेहरु ने ने 1947 को अपने एक भाषण में कहा: “जब तक शासन की बागडोर मेरे हाथ में है, भारत कभी हिंदू राज्य नहीं बन सकता |

Wednesday, 3 December 2014

श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन - एक सतत संघर्ष

यह एक स्थापित सत्य है कि मुग़ल आक्रंताओ ने बार-बार हिन्दुओ का दमन एवं उन पर इस्लाम की श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयत्न किया | उन्होंने हजारो मंदिर तोड़ेजिनमे से 4 पवित्र स्थान है : अयोध्यामथुराकाशी एवं सोमनाथ | मुगल आक्रंताओ ने इन सभी जगह पर मस्जिद जैसा ढांचा बनाने का प्रयत्न किया | इनमे से भगवान् सोमनाथ के मंदिर की पुन्रप्रतिष्ठा तो आज़ादी के बाद हो गयीकिन्तु शेष अभी खंडित रूप में है |


परमात्मा की यह शाश्वत घोषणा है कि 'जब-जब धर्म को समाप्त करने का कुचक्र रचा जायेगातब-तब वह स्वयं धरती पर आकर धर्म की स्थपना करेंगे और सज्जन शक्तियों का संरक्षण करेंगे' |

1526 में बाबर अयोध्या आया और सरयू के किनारे डेरा डाला | भारत पर विजय के लक्ष्य को लेकर वो अपने धर्मगुरु से मिला | उन्होंने बाबर को श्री रामजन्मभूमि के मंदिर को तोड़ने की सलाह दी | सन 1528 में अयोध्या में राम मंदिर को उसने तोड़ने का प्रयास किया लेकिन प्रचंड हिन्दू प्रतिकार के कारण सफल नहीं हुआ | इस कारण वहां न तो मीनार बन सकी और न ही वजू करने का स्थान | इसलिए निर्माण केवल एक ढांचा थामस्जिद कदापि नहीं |

जन्मभूमि को पुन: प्राप्त करने के लिए हिन्दुओ की ओर से सन 1528 से 1934 तक 76 युद्ध लड़े गये | 1934 का संघर्ष ऐसा समय था जब वहाँ मुस्लिम गये ही नहीं | अयोध्या में 1934 में एक गाय काट देने के कारण हिन्दू समाज में जबरदस्त आक्रोश फ़ैल गया था | गो हत्यारों को अपनी जान देनी पड़ी और कुछ हिन्दुओ का भी बलिदान हुआ | इतने उत्तेजित हिंन्दु समाज ने कथित बाबरी ढांचे पर आक्रमण कर इसके तीन गुम्बदो को क्षतिग्रस्त कर सम्पूर्ण परिसर को अपने अधिकार में ले लिया | लेकिन अंग्रेजो के चलते कब्ज़ा ज्यादा दिन नहीं रहा और गुम्बदो की मरम्मत के लिए अंग्रेजो ने हिन्दुओ से टैक्स वसूला | इस घटना के बाद न तो वहां कोई मुसलमान जाने की हिम्मत जुटा पाया और न ही वहां कभी नमाज पढ़ी गयी |

सतत संघर्ष का रूप आज़ादी के बाद 22 दिसम्बर, 1949 की अर्धरात्रि में देखने को मिला जब ढांचे के अन्दर भगवान् प्रकट हुए | इस प्राकट्य के पश्चात 6 दिसम्बर 1992 तक उसी स्थान पर विधिवत त्रिकाल पूजन आरती भोग होता रहा | जिसके लिए एक पुजारी को नियुक्त किया गया था | इस सब के पश्चात 7 अक्टूबर, 1984 से 6 दिसम्बर, 1992 तक का 77वाँ लोकतान्त्रिक चरणबद्ध संघर्ष चला |

प्रथम चरण: मार्च, 1983 में मुज्जफरनगर में हिन्दू सम्मेलन का आयोजन हुआ जिसमे श्री गुलजारी लाल नंदा और श्री दाऊदयाल खन्ना की विशेष उपस्थिति रही | इस सम्मलेन में श्री दाऊदयाल खन्ना जी ने अयोध्यामथुरा और काशी के तीनो धर्मस्थानों की मुक्ति का आग्रह श्रीमती इंदिरा गाँधी को पत्र लिखकर किया | इसके पश्चात सन 1984 में दिल्ली के विज्ञान भवन में प्रथम धर्मसंसद का अधिवेशन हुआ जिसमें 575 धर्माचार्यो की उपस्थिति रही | 7 अक्टूबर 1984 को अयोध्या में सरयू के किनारे ताला खुलवाने के लिए संकल्प सभा का आयोजन हुआ जिसमे लगभग 20 हज़ार संत एवं भक्त उपस्थित रहे | 8 अक्टूबर 1984 से लखनऊ के लिए पदयात्रा प्रारंभ हुई  और 14 अक्टूबर को लखनऊ के वाटिका पार्क में लगभग 5 लाख लोगो की उपस्थिति में विराट धर्मसभा हुई | अक्टूबर 1985 में उडुपी में द्वितीय धर्मसंसद हुई जिसमे 850 पूज्य धर्माचार्यों की उपस्थिति रही | संतो द्वारा महाशिवरात्रि 1986 तक ताला न खोलने पर अयोध्या में सत्याग्रह का निर्णय हुआ और दिगम्बर अखाड़े के श्रीमहंत परमहंस रामचन्द्रदास जी महाराज ने ताला न खोलने पर आत्मदाह की घोषणा की | इसके पश्चात 1 फरवरी, 1986 को जिला न्यायधीश श्री के.एम.पाण्डेय ने ताला खोलने का आदेश दिया |

द्वितीय चरण: पूज्य संतो ने विचार किया कि  केवल ताला खुलवाना हमारा मकसद नहीं बल्कि आक्रंताओ द्वारा जो अपमान हुआ उसका परिमार्जन होना चाहिए |  इसके बाद श्रीराम जन्मभूमि न्यास का गठन हुआ और मंदिर के प्रारूप की चयन प्रक्रिया शुरू हुई | जनवरी, 1989 में प्रयागराज महाकुम्भ के अवसर पर तृतीय धर्मसंसद का आयोजन हुआ और पूज्य देवराहा बाबा जी की उपस्थिति के साथ ही 10,000 संत और लाखो भक्त इसमें शामिल हुए |  इसके बाद प्रत्येक गाँव से एक शिला और प्रत्येक व्यक्ति से सवा रुपए लेने का अभियान आरम्भ हुआ |  2.75 लाख गाँवों में 6 करोड़ व्यक्तियों ने पूजन किया और 9 नवम्बर को शिलान्यास की घोषणा हुई | 16  18 अक्टूबर को मुस्लिम वक्फ बोर्ड द्वारा शिलान्यास रोकने के लिए दायर किये गये दोनों प्रार्थना पत्र लखनऊ पूर्णपीठ द्वारा अस्वीकार कर दिए गये | इसके बाद 1989 में दो याचिकाएं ( 1137 तथा 1152 ) सर्वोच्च न्यायालय में दायर हुई जिनको 27 अक्टूबर, 1989 को न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया | इसके बाद 8 नवम्बर, 1989 को गृह मंत्री बूटा सिंह व सैयद शहाबुद्दीन उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री नारायण दत्त तिवारी और अन्य प्रशासनिक अधकारियों की बैठक में लखनऊ में शामिल हुए | जिसके बाद शिलान्यास वाले मुकदमे में निर्णय हुआ कि विवादित भूमि की सीमा के बाहर शिलान्यास निश्चित समय और निश्चित स्थान पर होगा | 9 नवम्बर, 1989 को शिलान्यास स्थल पर खुदाई प्रारम्भ हुई और यह कार्य 10 नवम्बर, 1989 को बिहार के दलित बंधू कामेश्वर चौपाल द्वारा हजारो संतो व भक्तो की उपस्थिति में वेद मंत्र एवं शंख ध्वनि के मध्य संपन्न हुआ |  

शिलान्यास
11, नवम्बर 1989 को फैजाबाद के जिलाधीश ने आगे के निर्माण को रोकने का आदेश दिया और सब संत वापिस आ गए | जनवरी, 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह को विवाद सुलझाने के लिए संतो ने चार माह का समय दिया |

तृतीय चरण: अगस्त1990 में मंदिर के लिए पत्थर तराशने का काम शुरू हुआ | 2324 जून को हरिद्वार के भारत माता मंदिर में मार्गदर्शक मंडल की बैठक हुई और 30 अक्टूबर 1990 को मंदिर निर्माण के लिए कारसेवा की घोषण हुई |  पूज्य संतो द्वारा हिन्दू समाज का आह्वान हुआ कि दीपावली में रामज्योति से ही दीपक जलाएं | अयोध्या में अरणि मंथन से प्राप्त अग्नि द्वारा प्रज्वलित राम ज्योति को सम्पूर्ण देश में पहुँचाया गया 


Ramjyoti
उत्तरप्रदेश सरकार ने ज्योति को राज्य में प्रतिबंधित कर दिया और कारसेवा रोकने के लिए यह घोषणा  की कि अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकेगा” |  अयोध्या जाने वाली सभी ट्रेनबस रद्द कर दी गयी और 40 बटालियन पैरा मिलिट्री फ़ोर्स तैनात कर दी गयी | बड़ी-बड़ी खाई खोदी गई और कंटीले तार बाँध दिए गये | 23 अक्टूबर को भाजपा नेता लालकृष्ण आडवानी जी को बिहार में गिरफ्तार कर लिया गया | 


पत्रकारों ने कहा कि ढांचे पर कोई एक फावड़ा भी फेंक दे तो कारसेवा मान लेंगे |  इसे रामभक्तो ने चुनौती माना और चलो अयोध्या के नारे पर देशभर के लाखो कारसेवक अयोध्या की ओर चल पड़े | गाँव-गाँव में कारसेवको का स्वागत हुआ, भोजन आदि की वयवस्था श्रीराम की प्रेरणा से हुई | उत्तरप्रदेश में गिरफ्तारियां आरंभ हो गई और सब जिलो में जेले कारसेवको से भर गयी | 30 अक्टूबर को कारसेवा के दिन पूज्य स्वामी वामदेव, श्री अशोक सिंघल एवं श्री श्रीशचंद्र दीक्षित जी कारसेवा करने के लिए अयोध्या ही नहीं बल्कि ढांचे तक पहुँच गए |   
Shri Ashoke Singhal At Karsewa
31 अक्टूबर एवं नवम्बर को विश्राम के पश्चात नवम्बर को पुन: कारसेवक निकले | लेकिन सरकार का क्रूर चेहरा उजागर हुआ और सुनियोजित योजना के तहत कारसेवको पर गोलियों की बौछार हुई व नरसंहार के षड़यंत्र का क्रियान्वयन हुआ कोठारी बंधुओ सहित अनेको कारसेवक हुतात्मा हो गये मंदिर निर्माण के लिए 40 दिन का सत्याग्रह चला कारसेवको की अस्थिकलश यात्रायें प्रारंभ हुई और जनवरी 1991 में प्रयागराज में इन अस्थियों का विसर्जन हुआ 
 कोठारी बंधुओ सहित अनेको कारसेवक हुतात्मा हो गये

अप्रैल 1991 में विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा दिल्ली में महारैली का आयोजन 25 लाख की ऐतिहासिक उपस्थिति के साथ हुआ उसी दिन विश्वनाथ प्रताप सिंह का पतन हो गया |

विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा दिल्ली में महारैली
चतुर्थ चरण: विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के पतन पश्चात श्री चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने और उन्होने वार्ता का सुझाव दिया | 1 दिसम्बर, 1990 को विश्व हिन्दू परिषद् बाबरी मस्जिद एक्सन कमेटी और सरकारी प्रतिनिधियों की बैठक में वार्ता प्रारंभ हुई | 4 दिसम्बर, 1990 को दूसरी बैठक में तत्कालीन गृह राज्यमंत्रीउत्तरप्रदेशमहाराष्ट्र और राजस्थान के मुख्यमंत्री व श्री भैरो सिंह शेखावत उपस्थित रहे सोहार्दपूर्ण समाधान के लिए यह निर्णय हुआ कि दोनों पक्षों के लोग 22 दिसम्बर 1990 तक अपने साक्ष्य गृह राज्यमंत्री को उपलब्ध कराएँ दोनों को एक दुसरे के साक्ष्यो का प्रत्युत्तर जनवरी 1991 तक देना था विश्व हिन्दू परिषद् ने बाबरी मस्जिद एक्सन कमेटी के दावो को निरस्त करते हुए प्रत्युत्तर दिया जबकि कमेटी ने केवल अपने पक्ष को और अधिक प्रमाणित करने वाली फोटोप्रतियां दी | 10 जनवरी, 1991 को गुजरात भवन में बैठक हुई और निर्णय लिया गया कि प्रस्तुत दस्तावेजो को ऐतहासिकपुरातात्विकराजस्व और विधि शीर्षक के अन्तरगत वर्गीकरण कर लिया जाए यह भी तय हुआ कि दोनों पक्ष अपने विशेषज्ञो के नाम देंगे जो संबंधित दस्तावेजो का अध्ययन करके 24,25  26 जनवरी को मिलेंगे और अपनी टिप्पणी फरवरी, 1991 तक देंगे लेकिन बाबरी मस्जिद कमेटी ने अपने नाम दिए ही नहीं | 24 जनवरी को जो विशेषज्ञ आये वो कमेटी की कार्यकारिणी के पदाधिकारी थे | 25 जनवरी की बैठक में भी कोई नहीं आया जबकि विश्व हिन्दू परिषद् के प्रतिनिधि और विशेषज्ञ घंटे तक इंतज़ार करते रहे वार्ताओ का दौर 25 जनवरी 1991 तक चला अंतत: वार्तालाप बंद हो गयी |

विश्व हिन्दू परिषद् के प्रतिनिधि और सरकारी प्रतिनिधि
देश में आम चुनाव हुए और नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने जून 1992 में ढांचे के सामने समतलीकरण हुआ और अनेको प्राचीन मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए |  जुलाई 1992 में सर्वदेव अनुष्ठान हुआ और मंदिर के चबूतरे का निर्माण हुआ लेकिन प्रधानमंत्री ने काम रोकने के लिए संतो से निवेदन किया | सम्पूर्ण देश में विजयादशमी 6 अक्टूबर 1992 से दीपावली 25 अक्टूबर तक श्री राम चरण पादुका पूंजा कार्यक्रम हुआ | जिसके माध्यम से कारसेवको की भर्ती की गई | 30 अक्टूबर, 1992 को दिल्ली में पांचवी धर्मसंसद में 6 दिसम्बर 1992 को पुन: कारसेवा की घोषणा हुई | इसके पूर्व उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा अधिग्रहित 2.77 एकड़ भूखंड में उच्च न्यायालय का निर्णय आने की अपेक्षा थी लेकिन निर्णय सुनाने की तिथि 11 दिसम्बर, 1992 घोषित हुई |  लेकिन प्रथम कारसेवा के मार्गो के अवरुद्ध होने के अनुभव के कारण 6 दिसम्बर की घटना को टाला नहीं जा सकता था यही ईश्वरीय इच्छा थी |


इतिहास अचानक घटित होता है न कि योजनापूर्वक लिखा जाता है | ढांचा 5 घंटे में ही सरयू में प्रवाहित हो गया | कारसेवको ने आनन-फानन में तिरपाल का मंदिर बनाया और पुन: वहां रामलला विराजमान हो गए | 8 दिसम्बर, 1992 को ब्रह्म मुहर्त में केंद्रीय सुरक्षा बलों ने सम्पूर्ण परिसर को अपने कब्जे में ले लिया | सुरक्षा बलो की देखरेख में पुजारी द्वारा पूजा होने लगी | 21 दिसंबर, 1992 को अधिवक्ता श्री हरिशंकर जैन द्वारा उच्चतम न्यायालय में दायर याचिका पर न्यायमूर्ति श्री हरिहरनाथ और श्री ए.एन. गुप्ता की खंडपीठ ने 1 जनवरी. 1983 को अपने निर्णय द्वारा हिन्दू समाज को आरतीदर्शनपूजा-भोग का अधिकार दे दिया |

1937 में उठे श्रीराम जन्मभूमि विवाद पर अपने पत्र में महात्मा गाँधी जी ने लिखा था – “धार्मिक दृष्टिकोण से एक मुसलमान यह कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उसकी मस्जिद मेंजिसमे वह बराबर खुदा की इबादत करता आ रहा हैकोई हिन्दू उसमे बुत ले जाकर रख दे | उसी तरह एक हिन्दू भी कभी यह सहन नहीं करेगा कि उसके उस मंदिर मेंजहां वह बराबर रामकृष्णशंकरप्रभु और देवी की उपासना करता चला आ रहा हैकोई उसे तोड़कर मस्जिद बाना दे | जहां पर ऐसे काण्ड हुए हैवास्तव में ये चिन्ह धार्मिक गुलामी के है” | 






शिक्षा का भगवाकरण आखिर क्या?

इस समय शिक्षा के पाठ्यक्रम का भगवाकरण करने होने का आरोपी शोर मचा रहे है | किन्तु “भगवाकरण क्या है”? यह कोई नहीं बताता | अपरिभाषित संप्रदाय...